रविवार, 23 जून 2013

अमृतबचन-ध्येयवाक्य

1-ज्ञान समर्पण की प्रथम सीढी है।
2-उधार के ज्ञान से त्रिस्कार का भाव पैदा होता है। और स्वाभिमान
  का भाव नश्ट हो जाता है।
3-प्रतिस्र्पधता के होने पर ही विकास तीव्रता से होता है। किसी की
  टांग-खिचाई करने से नही।
4-धीर-वीर प्रवत्ति के लोग विपरीत परिस्थितियों में भी विचलित नही
  होते है।
5-जो जितना अधिक षक्तिषाली होगा वह स्वंय के विकसित होने से
  पहले सम्भव नही है।
6-पुनः विष्व विजेयता बनने से पहले हमें स्वयं को विकसित करने से
  पहले सम्भव नही होगा।
7-षब्दो के महत्व को बनाये रखने के लिये षब्द कानून होना
  आवष्यक है।
8-आधा सच धर्म के उद्धार के लिये आवष्यक है और अधर्म के
  नाष के लिये भी आवष्यक है।
9-तुलना करना या किसी विशय को स्पश्ट करना निन्दा नही हो
  सकती।
10-धन ना हो तो, धनात्मक सोच तो हो धन तो स्वतः चला आयेगा।
11-तर्क से ज्ञान और ज्ञान से प्रकाष का दीपक तैयार होता है।
12-आत्मविष्वास व्यक्ति के जीवन की सफलता का आधार है।

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